Sunday, December 13, 2020

ना संघर्ष ना तकलीफ, तो क्या मजा है जीने में

बड़े-बड़े तूफ़ान थम जाते है, जब आग लगी हो सीने में

 वाम से जुड़े लोग भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि अब पहले की तरह वाम का वह दबदबा नहीं रहा। आदर्शों  और सिद्धांतों को समर्पित सियासत गिरगिट की तरह तेज़ी से रंग बदलते उन हालात से सुर और ताल नहीं बिठा पाई जो विगत कुछ दशकों में उभर का सामने आए। सत्ता पर बैठने वालों ने इस मामले में मुहारत हासिल कर ली और सफल भी हुए। इस अप्रत्याशित सफलता के बावजूद उनके पास समर्पित लोग नहीं हैं जो आज भी वाम के पास हैं। इन्हीं लोगों में एक हैं कामरेड सुखदर्शन नत्त। अब जबकि वाम से जुड़े लोगों के परिवारिक सदस्य भी उनका साथ देते नज़र नहीं आते उस समय कामरेड सुखदर्शन नत्त पूरे परिवार सहित तन, मन और धन से वाम की राह पर समर्पित हैं और पूरे जोश के साथ इसी मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं। सिर्फ चल ही नहीं रहे हैं बल्कि अन्य लोगों को चला भी रहे हैं। पंजाब के हालात से लेकर दिल्ली के बार्डरों पर लगे किसान मोर्चों तक। इस पूरे परिवार को देख कर एक बार फिर उम्मीद बंधती है कि वाम बहुत जल्द करिश्मा दिखाएगा। प्रस्तुत है एक आलेख की कुछ पंक्तिया जो उन्हें ले कर इंद्रेश मैखुरी ने शेयर की हैं। --रेक्टर कथूरिया 

जिन्हें किसान आंदोलन में खालिस्तान का हाथ नजर आ रहा है उन्हें रिष्ठ पत्रकार चंद्रभूषण का यह पोस्ट पढ़ना चाहिए जिसमें वे बता रहे हैं कि आज किसान आंदोलन के नेता एक समय में खालिस्तान के खिलाफ लड़ाई के भी नेता रहे हैं। 

जिउंदे वस्दे रहो साथी

यकीन नहीं होता, पूरे तीस साल हो गए, जब पहली बार मैंने पंजाब की यात्रा की थी। इसकी पहली मंजिल थी मानसा, जो तब भटिंडा जिले का एक उनींदा सा कस्बा भर था। और इस मंजिल तक मेरे गाइड थे सपन दा। खुशमिजाज ट्रेड यूनियन लीडर सपन मुखर्जी, जो पंजाबी जुबान ऐसे बोलते थे जैसे मां के पेट से सीखकर आए हों। दिल्ली से पच्छिम का इलाका तब मेरे लिए परदेस था। सच कहूं तो दिल्ली भी धीरे-धीरे परिचय के दायरे में आ रहे किसी आश्चर्यलोक जैसी ही थी। मेरी दुनिया तब लखनऊ-इलाहाबाद से आरा-पटना के बीच ही घूमती थी। पंजाब में मैं एक साप्ताहिक पत्रिका के लिए रिपोर्टिंग करने आया था लेकिन यहां रहने का न मेरा कोई समय तय था, न जगह। संपर्क निकालते हुए ज्यादा से ज्यादा घूमना था।

बाहर चर्चा थी कि खालिस्तान का हल्ला अब ज्यादा दिन नहीं टिकने वाला, लेकिन बसों से खींचकर निर्दोष लोगों की हत्याएं तब भी हो रही थीं। आग दोबारा धधक उठने की बात तब भी कही जा रही थी। बीतते दिसंबर में दिन जाते यों भी देर नहीं लगती। ऊपर से माहौल ऐसा कि सूरज ढलते ही दुकानों के शटर और घरों के किवाड़ बंद हो जाते थे। इतना ही ध्यान है कि मानसा में जिन साथी के यहां हम रुके वहां रात में ज्यादा बात नहीं हो पाई। सुबह पता चला, लंबे-चौड़े लेकिन कसे हुए शरीर वाले उन साथी का नाम सुखदर्शन सिंह नट है और मानसा में पूरे परिवार के साथ सड़क पर उतर कर खालिस्तानियों के खिलाफ मोर्चा बांधने वाले वे अकेले ही हैं।

यह भी कि औपचारिक तौर पर वे एक सरकारी कर्मचारी हैं। सिंचाई विभाग में इंजीनियर। हालांकि उनके विभाग ने हाथ-पांव जोड़कर उन्हें महीने में सिर्फ एक दिन हाजिरी बनाने और पगार का चेक लेने के लिए दफ्तर आने को राजी कर लिया है। इस चमत्कार का कारण यह था कि नीचे से आने वाली विभागीय घूस में हिस्सा बंटाने और किसी भी इन्क्वायरी में झूठ बोलने से उन्होंने साफ मना कर दिया था। अलग तरह की एक्टिविस्ट लाइफ। उनकी पत्नी जसबीर कौर पर मेरा ध्यान तब उतना ही गया, जितना किसी अजनबी परिवार की गृहणी पर कुछ घंटों में जा सकता है। फिर वे मुझे आयोजनों में दिखने लगीं। जिम्मेदार, गंभीर और सदा मुस्कुराती हुई।

जैसे-जैसे मेरे जीवन की दिशा बदली, पति-पत्नी से मुलाकात के मौके कम होते गए। फेसबुक का दौर आया तो यहां मानसा के कई साथी मिले। सबकी अलग-अलग कहानियां। एक दिन फ्रेंड रिक्वेस्ट में नवकिरन नट नाम देखकर क्लिक किया। जबर्दस्त फेमिनिस्ट और मुद्दों पर लड़ मरने वाली लेफ्टिस्ट लड़की। पूछा तो पता चला, साथी सुखदर्शन और जसबीर की बेटी है। और अभी अचानक जानकारी मिली कि पूरा परिवार टीकरी बॉर्डर पर आंदोलन में डटा है। निजी तौर पर मेरे लिए सबसे अचरज की बात जसबीर कौर का टीकरी के मोर्चे पर समूचा प्रबंधन देखना है। 60 की उम्र में हमेशा की तरह जिम्मेदार, गंभीर और हर दबाव में मुस्कुराती हुई। संघर्ष का यह रसायनशास्त्र कितनी खामोशी से काम करता है! 

संघर्ष का यह रसायनशास्त्र अगर आपके आसपास भी सक्रिय हो तो इसकी जानकारी अवश्य प्रकाशनार्थ भेजिए। --सम्पादक   ईमेल है: medialink32@gmail.com

नक्सलबाड़ी  (पंजाबी) में  भी कामरेड सुखदर्शन नत्त पर विशेष  पोस्ट 

ਖੜੋਤ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਨਕਸਲਬਾੜੀ ਲਹਿਰ ਦੀ ਸੰਭਾਲ ਕਰਦੀ ਸ਼ਖ਼ਸੀਅਤ