Sunday, December 13, 2020

ना संघर्ष ना तकलीफ, तो क्या मजा है जीने में

बड़े-बड़े तूफ़ान थम जाते है, जब आग लगी हो सीने में

 वाम से जुड़े लोग भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि अब पहले की तरह वाम का वह दबदबा नहीं रहा। आदर्शों  और सिद्धांतों को समर्पित सियासत गिरगिट की तरह तेज़ी से रंग बदलते उन हालात से सुर और ताल नहीं बिठा पाई जो विगत कुछ दशकों में उभर का सामने आए। सत्ता पर बैठने वालों ने इस मामले में मुहारत हासिल कर ली और सफल भी हुए। इस अप्रत्याशित सफलता के बावजूद उनके पास समर्पित लोग नहीं हैं जो आज भी वाम के पास हैं। इन्हीं लोगों में एक हैं कामरेड सुखदर्शन नत्त। अब जबकि वाम से जुड़े लोगों के परिवारिक सदस्य भी उनका साथ देते नज़र नहीं आते उस समय कामरेड सुखदर्शन नत्त पूरे परिवार सहित तन, मन और धन से वाम की राह पर समर्पित हैं और पूरे जोश के साथ इसी मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं। सिर्फ चल ही नहीं रहे हैं बल्कि अन्य लोगों को चला भी रहे हैं। पंजाब के हालात से लेकर दिल्ली के बार्डरों पर लगे किसान मोर्चों तक। इस पूरे परिवार को देख कर एक बार फिर उम्मीद बंधती है कि वाम बहुत जल्द करिश्मा दिखाएगा। प्रस्तुत है एक आलेख की कुछ पंक्तिया जो उन्हें ले कर इंद्रेश मैखुरी ने शेयर की हैं। --रेक्टर कथूरिया 

जिन्हें किसान आंदोलन में खालिस्तान का हाथ नजर आ रहा है उन्हें रिष्ठ पत्रकार चंद्रभूषण का यह पोस्ट पढ़ना चाहिए जिसमें वे बता रहे हैं कि आज किसान आंदोलन के नेता एक समय में खालिस्तान के खिलाफ लड़ाई के भी नेता रहे हैं। 

जिउंदे वस्दे रहो साथी

यकीन नहीं होता, पूरे तीस साल हो गए, जब पहली बार मैंने पंजाब की यात्रा की थी। इसकी पहली मंजिल थी मानसा, जो तब भटिंडा जिले का एक उनींदा सा कस्बा भर था। और इस मंजिल तक मेरे गाइड थे सपन दा। खुशमिजाज ट्रेड यूनियन लीडर सपन मुखर्जी, जो पंजाबी जुबान ऐसे बोलते थे जैसे मां के पेट से सीखकर आए हों। दिल्ली से पच्छिम का इलाका तब मेरे लिए परदेस था। सच कहूं तो दिल्ली भी धीरे-धीरे परिचय के दायरे में आ रहे किसी आश्चर्यलोक जैसी ही थी। मेरी दुनिया तब लखनऊ-इलाहाबाद से आरा-पटना के बीच ही घूमती थी। पंजाब में मैं एक साप्ताहिक पत्रिका के लिए रिपोर्टिंग करने आया था लेकिन यहां रहने का न मेरा कोई समय तय था, न जगह। संपर्क निकालते हुए ज्यादा से ज्यादा घूमना था।

बाहर चर्चा थी कि खालिस्तान का हल्ला अब ज्यादा दिन नहीं टिकने वाला, लेकिन बसों से खींचकर निर्दोष लोगों की हत्याएं तब भी हो रही थीं। आग दोबारा धधक उठने की बात तब भी कही जा रही थी। बीतते दिसंबर में दिन जाते यों भी देर नहीं लगती। ऊपर से माहौल ऐसा कि सूरज ढलते ही दुकानों के शटर और घरों के किवाड़ बंद हो जाते थे। इतना ही ध्यान है कि मानसा में जिन साथी के यहां हम रुके वहां रात में ज्यादा बात नहीं हो पाई। सुबह पता चला, लंबे-चौड़े लेकिन कसे हुए शरीर वाले उन साथी का नाम सुखदर्शन सिंह नट है और मानसा में पूरे परिवार के साथ सड़क पर उतर कर खालिस्तानियों के खिलाफ मोर्चा बांधने वाले वे अकेले ही हैं।

यह भी कि औपचारिक तौर पर वे एक सरकारी कर्मचारी हैं। सिंचाई विभाग में इंजीनियर। हालांकि उनके विभाग ने हाथ-पांव जोड़कर उन्हें महीने में सिर्फ एक दिन हाजिरी बनाने और पगार का चेक लेने के लिए दफ्तर आने को राजी कर लिया है। इस चमत्कार का कारण यह था कि नीचे से आने वाली विभागीय घूस में हिस्सा बंटाने और किसी भी इन्क्वायरी में झूठ बोलने से उन्होंने साफ मना कर दिया था। अलग तरह की एक्टिविस्ट लाइफ। उनकी पत्नी जसबीर कौर पर मेरा ध्यान तब उतना ही गया, जितना किसी अजनबी परिवार की गृहणी पर कुछ घंटों में जा सकता है। फिर वे मुझे आयोजनों में दिखने लगीं। जिम्मेदार, गंभीर और सदा मुस्कुराती हुई।

जैसे-जैसे मेरे जीवन की दिशा बदली, पति-पत्नी से मुलाकात के मौके कम होते गए। फेसबुक का दौर आया तो यहां मानसा के कई साथी मिले। सबकी अलग-अलग कहानियां। एक दिन फ्रेंड रिक्वेस्ट में नवकिरन नट नाम देखकर क्लिक किया। जबर्दस्त फेमिनिस्ट और मुद्दों पर लड़ मरने वाली लेफ्टिस्ट लड़की। पूछा तो पता चला, साथी सुखदर्शन और जसबीर की बेटी है। और अभी अचानक जानकारी मिली कि पूरा परिवार टीकरी बॉर्डर पर आंदोलन में डटा है। निजी तौर पर मेरे लिए सबसे अचरज की बात जसबीर कौर का टीकरी के मोर्चे पर समूचा प्रबंधन देखना है। 60 की उम्र में हमेशा की तरह जिम्मेदार, गंभीर और हर दबाव में मुस्कुराती हुई। संघर्ष का यह रसायनशास्त्र कितनी खामोशी से काम करता है! 

संघर्ष का यह रसायनशास्त्र अगर आपके आसपास भी सक्रिय हो तो इसकी जानकारी अवश्य प्रकाशनार्थ भेजिए। --सम्पादक   ईमेल है: medialink32@gmail.com

नक्सलबाड़ी  (पंजाबी) में  भी कामरेड सुखदर्शन नत्त पर विशेष  पोस्ट 

ਖੜੋਤ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਨਕਸਲਬਾੜੀ ਲਹਿਰ ਦੀ ਸੰਭਾਲ ਕਰਦੀ ਸ਼ਖ਼ਸੀਅਤ

Sunday, September 13, 2020

नक्सली रोशनलाल राणा और सुनील कुमार गिरफ्तार

 पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट ऑफ इंडिया से जुड़े हैं दोनों 
 हजारीबाग:13 सितंबर 2020: (सोशल मीडिया//इंटरनेट//नक्सलबाड़ी स्क्रीन)::
मध्य भारत की नक्सली सरगर्मियों पर
पंजाबी पत्रिका सुर्ख रेखा का विशेषांक 
प्रतीकात्मक तस्वीर 
कोरोना का कहर बुरी तरह सामने आने के बावजूद नक्सली संगठनों की गतिविधियों में कोई रुकावट या धीमी गति जैसा कुछ भी देखने को नहीं मिला। पंजाब से पंजाबी में छपती नक्सली पत्रिकाओं के मुताबिक नक्सली संगठन पूरे जोशो खरोश के साथ अपनी सरगर्मियां चला रहे हैं। साथ ही वे अपनी मीटिंगें भी कर रहे हैं और सम्मेलन भी आयोजित कर रहे हैं। इन पत्रिकायों से जुड़े सूत्रों  के मुताबिक नक्सली संगठन परम्परिक  मुकाबले अधिक काम कर रहे हैं।  पंजाबी की नक्सली पत्रिका "सुर्ख रेखा" ने अपने मार्च-अगस्त 2020 के अंक को इस बार विशेषांक के तौर पर प्रस्तुत किया है। इसमें चार पृष्ठों का रंगीन कवर है और बाकी 138 पृष्ठ अलग हैं। इस तरह कुल कुल-142 पृष्ठ की इस पत्रिका की कवर परे कीमत लिखी है 60/- रूपये।  इस विशेष अंक में इस बार भी क़ाफी कुछ है। कवर स्टोरी सीपीआई (माओवादी) के बस्तर सम्मेलन को बनाया गया है और इसकी तस्वीरें भी फ्रंट पेज पर प्रकशित की गयी हैं। पत्रिका के मुताबिक यह सम्मेलन कोरोना काल के नियमों और बंदिशों की धज्जियां उड़ाते हुए 18 से 20 जून 2020 तक हुआ। इस मौके पर आदिवासियों की  बस्तर में की गई नाकाबंदी की तस्वीर भी दिखाई गई है जिसमें प्रवेश वर्जित के बैनर लगे भी नज़र आते हैं। इस स्टोरी के ज़रिये यह कहने की कोशिश की गयी कि बस्तर में सीपीआई (माओवादी)की ही चलती है। इसी तरह के प्रचार से पंजाब में भी इस आंदोलन को फिर से खड़ा करने की कोशिशें नज़र आती हैं। 
इसी तरह सुरक्षा बलों की खबरें भी आ रही हैं। झारखंड के हजारीबाग में पुलिस के हाथ पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट ऑफ इंडिया (PLFI) के दो नक्सलियों को पकड़ने में कामयाबी लगी है जो लगातार ऑयल एंड नेचुरल गैस कार्पोरेशन (ओएनजीसी) के अधिकारियों को रंगदारी देने के लिए लगातार धमकियों दे रहे थे। यह सिलसिला काफी देर से जारी था। आखिर तंग आ कर जब कम्पनी ने इसका खुलासा सुरक्षा बलों से किया तो नक्सली कारकुनों को पकड़ने के लिए  जाल बिछाया गया। गौरतलब है कि जिस पैसे को लोग या प्रशासन रंगदारी कहता है कम्युनिस्ट संगठनों में उसी पैसे को लेवी कहा जाता है। यह लेवी पार्टी स्वयं के कारकुनों और अन्य जानकारों से भी मांग सकती है। कम्युनिस्ट आंदोलनों के फंड की कमी इसी तरफ पूरी होती है।  
नक्सलियों को पकड़े जाने के घटनाक्रम पर हजारीबाग के पुलिस अधीक्षक कार्तिक एस ने मीडिया को बताया कि पीएलआफआई के दोनों नक्सलियों को पुलिस ने गुप्त सूचना के आधार पर छापेमारी कर शनिवार की रात को धर दबोचा। उन्होंने इसका काफी और विस्तार भी दिया। उन्होंने बताया कि अपराधियों ने ओएनजीसी के अधिकारियों से रंगदारी मांगने की बात स्वीकारी है। दोनों की पहचान रोशनलाल राणा और सुनील कुमार के रूप में की गयी है। रोशन लाल के परिवार का पता लगाया गया तो पता चला कि वह गणेश राणा का बेटा है। इसी तरह सुनील कुमार संतो प्रसाद का बेटा है। 
कार्तिक ने बताया कि नक्सलवाद को काबू में करने के लिए हमारा अभियान तेज़ हैं और पिछले कुछ माह में माओवादियों के इस अलग हुए गिरोह पीएलएफआई के कुल 15 नक्सलियों को पुलिस ने हजारीबाग में गिरफ्तार करने में सफलता पायी है। जिनमें उनका जोनल कमांडर नंद किशोर महतो भी शामिल है। ज़ाहिर है कि यह करवाई नक्सली संगठनों पर काफी बड़ा आघात है। फिर भी यह स्पष्ट नहीं हो सका कि इन 15 
प्रतिबंधित उग्रवादी संगठन पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट ऑफ इंडिया (PLFI) के नाम पर ओएनजीसी प्रभा कंपनी के डीजीएम अमित सिंह एवं अन्य लोगों से लेवी मांगने वाले दो अपराधियों को केरेडारी व बड़कागांव पुलिस ने गिरफ्तार किया है।  थाना प्रभारी ललित कुमार ने बड़कागांव थाना में प्रेस कॉन्फ्रेंस करके यह जानकारी दी। 
उन्होंने बताया कि वरिष्ठ पदाधिकारियों को मिली गुप्त सूचना के आधार पर बड़कागांव थाना में दर्ज केस संख्या 79/20 के अप्राथमिक अभियुक्त रोशन लाल (पिता गणेश राणा) एवं सुनील कुमार (पिता संतो प्रसाद) को गिरफ्तार किया गया है। दोनों ग्राम पतरा खुर्द के निवासी हैं।  इन्हें पतरा खुर्द से ही गिरफ्तार किया गया है। 
थाना प्रभारी ने बताया कि गिरफ्तार किये गये अपराधियों ने स्वीकार किया है कि इन्होंने ओएनजीसी प्रभा कंपनी के डीजीएम अमित कुमार सिंह एवं अन्य लोगों से लेवी वसूली है। दोनों ने यह भी माना है कि उग्रवादी संगठन पीएलएफआइ के दिनेश गोप एवं अवधेश जायसवाल ने बड़कागांव के उरीमारी, पतरातू व भुरकुंडा क्षेत्र में नंद किशोर महतो को एरिया कमांडर बनाया है। 
ये दोनों उसी के निर्देश पर कंपनियों से लेवी की वसूली करते थे। थाना प्रभारी ने बताया कि दोनों अपराधियों से दो मोबाइल फोन बरामद हुए हैं। इसका कॉल डिटेल भी पुलिस के हाथ लगा है। छापामारी दल का नेतृत्व केरेडारी के थाना प्रभारी बम बम सिंह ने की। 
इनका सहयोग बड़कागांव थाना के पुलिस अवर निरीक्षक बबलू कुमार, पुलिस अवर निरीक्षक दीपक कुमार, पुलिस अवर निरीक्षक अभय कुमार, पुलिस अवर निरीक्षक दिलीप कुमार, पुलिस अवर निरीक्षक अमित कुमार, पुलिस अवर निरीक्षक उत्तम तिवारी एसआइटी हजारीबाग एवं सशत्र बल ने किया।  सुरक्षा बलों लिए बहुत बड़ी उपलब्धि भी है। 
इसी तरह पंजाब के गांव अचरवाल में इस बार भी 12 सितंबर को शहीद कामरेड अमर सिंह अचरवाल  की बरसी मनाई गई। वही कामरेड अमर सिंह अचरवाल एक ऐसा लोकप्रिय शख्स जिसका मानना था कि कभी भी स्कियोरिटी के लामलश्कर किसी को भी सुरक्षा नहीं दे सकते। व्यक्ति की नीतियां ही उसकी सुरक्षा करती हैं। कामरेड अचरवाल पंजाब की भूमि पर सक्रिय जन समर्थक योद्धाओं को एकजुट करने के प्रयासों में थे। उन्होंने बहुत  बदले लेकिन स्वर एक ही रहा। इसी बीच उनकी हत्या कर दी गयी। यह भी एक  लम्बी कहानी है जिसकी चर्चा फिर कभी सही। 
इस मौके पर कामरेड कंवलजीत सिंह खन्ना, कामरेड सुखदर्शन नत्त, कामरेड निर्भय ढुडीके, जसबीर नत्त, अवतार रसूलपुर, हरबंस कौर गौंसला, बी की यू (एकता-डकौंदा)नेता महिंद्र सिंह कमालपुरा इत्यादि कई सक्रिय नेताओं ने सम्बोधित किया। इस प्रकार इस तरह के आयोजन पंजाब में इस आंदोलन  फिर से तैयार कर रहे हैं।  लोग बहुत ही उत्साह और जोश के  साथ ऐसे आयोजनों में आते हैं।  
वास्तव में कामरेड अमर सिंह अचरवाल वाम नक्सली सियासत में एक ऐसा रणनीतिकार भी था जिसके सुझाव, और विचार  होने वाले फैसलों पर असर डालते थे। इसलिए कंर्फ्ड अचरवाल को पंजाब की सियासत से हटाने वाले लोग कौन होंगें शायद इसे समझना ज़रा भी मुश्किल न लगे चाहे उन हत्यारों के नाम और रूप कोई भी क्यूं न हों। एक ऐसा व्यक्ति हमसे छीन गया जिसे किसी सरकार की सुरक्षा पर नहीं बल्कि अपने लोगों की सुरक्षा पर भरोसा था। इस विश्वास को तोड़ने का प्रयास बहुत पहले भी होता रहा है। सरकारी सुरक्षा लेने की गुहार लगाने   खड़ा वह व्यक्ति आज भी अपने विचारों के ज़रिये इसी रहस्य को समझाने के लिए उत्सुक है। गोलिया चला कर उसका जिस्म तो दुनिया से हटा दिया गया लेकिन उसके विचार आज भी जगमगा रहे हैं। 

Tuesday, June 23, 2020

शहीद कामरेड निधान सिंह की क़ुरबानी को याद करते हुए

क्रूर यातना के बावजूद उन्होंने खालिस्तानी हत्यारों को कुछ न बताया 
सोशल मीडिया//फेसबुक: 23 जून 2020 शाम 4:51 बजे: (नक्सलबाड़ी स्क्रीन  ब्यूरो) ::
आइये आज और 100 वीं जन्म शताब्दी वर्ष पर कॉमरेड निधान सिंह घुडाणी कलां की भावना का सम्मान करें और 29 वीं जन्म शताब्दी के वर्ष में.. खालिस्तानी आतंकवाद के खिलाफ अपना जीवन दिया। लोगों की मुक्ति के लिए एक क्रूसेडर जब तक बहुत आखिरी और सबसे उत्साही प्रैक्टिशनर मासलाइन के। हमें हिंदुत्व फासीम के साथ उसकी धर्मनिरपेक्ष आत्मा को उसके क्रेसेंडो में कम करने की जरूरत है।

कामरेड निधान सिंह घुडाणी कलां को ठीक 29 साल पहले खालिस्तानी कट्टरपंथियों ने फांसी पर लटका दिया था। कॉमरेड निधान के रूप में खालिस्तानी आतंक के खिलाफ कुछ साथियों ने ऐसे निरंतर प्रतिरोध किया, जिन्होंने उन्हें अपने सबसे कठिन बिंदु पर मारा। उस समय कुछ क्रांतिकारी वर्गों ने खालिस्तानी आतंकवाद या सिख कट्टरपंथी के साथ नरम पैडल किया। क्रूर यातना के अधीन होने के बावजूद उन्होंने अपने समूह के किसी भी रहस्य को बाहर करने के लिए समर्पित नहीं किया।

वह केंद्रीय टीम सी. पी. आई. (एम. एल.) समूह के थे जिसने खालिस्तानी कट्टरपंथी आंदोलन दांत और नाखून का मुकाबला किया या गहराई में किसी समूह ने नहीं किया। सन 1956 में उन्हें बपतिस्मा प्राप्त हुआ जब वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए। अपने जीवनकाल में कई अवसरों पर उन्हें कैद किया गया था।  औपचारिक रूप से वह पंजाब किसान संघ के अध्यक्ष थे और उनके जीवन के अंत में रोपड़ में किसान संघर्ष समिति के नेता के रूप में काम कर रहे थे।

भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन या मुक्ति के इतिहास में कॉमर्डे निधान सिंह का नाम स्थायी रूप से उत्कीर्ण होगा। वह उस युग के कामरेडों में से था जिसने खालिस्तानी अलगाववादी विचारधारा को मौत की भावना से परिभाषित किया था। बिना संदेह के वह हमारी भूमि के सबसे अच्छे पुत्रों में से एक था जिसकी आत्मा अभी भी चमकती है। दशकों तक किसान नेता के रूप में उन्होंने सावधानीपूर्वक काम किया। आज प्रचलित हिंदू भगवा आतंक का सामना करने के लिए निधान सिंह की तरह खिलने के लिए हमें और कमल चाहिए। निधान ने एक तकनीशियन के हुनर से एक सैनिक का निर्धारण किया। पंजाब में कुछ साथियों ने प्रेयरी फायर बनाने के लिए क्रांतिकारी प्रतिरोध की लाल चिंगारी दिखाई या चेयरमैन माओ की भावना को उतना ही निधान सिंह। उन्होंने अपने जीवनकाल में सबसे अधिक कष्टप्रद रास्तों को यात्रा की और इस प्रकार एक सच्चे क्रांतिकारी के आंतरिक, आध्यात्मिक सार को बाहर कर दिया। अनपढ़ होने के बावजूद उन्होंने मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओ के विचार में महारत हासिल की। उनका जीवन कामरेड के लिए अनुकरण करने के लिए एक उदाहरण था कि विभिन्न समयों पर एक आंदोलन की समस्याओं से कैसे निपटें और निराशा की गहराई से उठने के लिए।

बड़ी दृढ़ता और बोली कार्यप्रणाली के साथ उन्होंने बाएं साहसिक और एसएन सिंह के बाद दाएं विचलनवादी प्रवृत्ति का मुकाबला किया। सन 1970 के दशक में.. एक तलवार की धारणा के साथ उन्होंने सभी क्रांतिकारी हवाओं को अपनी रीढ़ की हड्डी में मारते हुए और अपनी आत्मा के मूल रूप में वैनगार्ड लेनिनिस्ट पार्टी के काटने के किनारे का बचाव किया। कॉमरेड निधान मास लाइन के अभ्यास में मास्टर थे। और सबसे अच्छे समर्थक या व्यवसायी सी. टी. सी. पी. आई. (एम. एल.) की लाइन के साथ उन्होंने सावधानीपूर्वक कौशल के साथ किसान संगठनों के भीतर एक अंश के रूप में काम किया, लेकिन अभी भी गुप्त पार्टी संगठन को संरक्षित कर रहे हैं।

8 जून को नक्सली शहीद तरसेम बावा की श्रद्धांजलि सभा में कामरेड कभी निधान के योगदान को नहीं भूल सकते। उस दिन 25 जून को उनके अनुयायियों ने  घुडाणी कलां में अपने गांव में एक सेना की तरह प्रतिरोध की चिंगारी प्रज्वलित की। यह समय बेहद नाज़ुक भी था तब 1991 में 5 जुलाई को उनकी स्मारक बैठक कई महिलाओं सहित, उत्साह में हजारों झुंड के साथ सबसे अधिक मार्मिक या प्रेरणादायक में से एक थी। मिलने का स्थान लाल चिरागों से जलने की याद दिलाता था। या एक चिंगारी प्रेयरी आग में बदल रही है। कॉम । स्मरण सभा में वक्ताओं ने खालिस्तानी आंदोलन और विचारधारा की फासीवादी प्रकृति पर बात की और यह राज्य के एजेंट के रूप में कैसे कार्य किया । उन्होंने कहा कि इस तरह की सभाएं सबसे अधिक उत्साहजनक थीं जिससे फासीवादी खालिस्तानी आंदोलन और राज्य आतंक का सामना करने के लिए पंजाब की जनता की उत्साह और क्षमता साबित हुई। सबसे उल्लेखनीय पत्रिका इंकलाबी जनतक लीह और अमोलक सिंह, सुर्ख रेखा के संपादक जसपाल जस्सी के भाषण थे। इस तरह की स्मारक बैठकों ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारी बलों की एकता के लिए मार्ग प्रशस्त किया, विशेष रूप से मासलाइन प्रवृत्ति की।

2 गुप्त सशस्त्र संगठन, "शहीद करतारा सिंह ब्रिगेड" और "लाल गार्ड" ने उनकी मौत का बदला लिया था, जिन्होंने सशस्त्र टीम के साथ अपने हत्यारों को खत्म कर दिया था।

निधान के समय में सीसीआरआई और सीटी समूहों की एकता को पूरा नहीं किया गया था, लेकिन वह संगठन भोली केंद्रीय टीम जो निधान सिंह थे, बाएं साहसिक और सही अवसरवाद अपनी जड़ों पर लड़ी थी।

इस साल भी उनकी 100 वीं जयंती वर्ष है। आज कुछ माओवादी अभी भी सिख अतिवादी विचारधारा का समर्थन करते हुए कॉमरेड निधान सिंह को याद करते हुए हमें खालिस्तान आंदोलन की फासीवादी प्रकृति और अकाली आंदोलन की प्रतिक्रियावादी प्रकृति को याद रखना चाहिए। दुख की बात है कि उसका बेटा पत्रिका सुरख रेखा के संस्थापक नाज़र सिंह बोपराई भी इस प्रवृत्ति का शिकार हुआ है, जो मासलाइन के बीज बोये गए हैं। आज निधान सिंह के दर्दनाक योगदान के लिए भूमिहीन श्रम एवं किसान संगठनों में मासलाइन अभ्यास का बहुत बकाया है। पंजाब में मासलाइन क्रान्तिकारी आंदोलन में आज कई कमल खिलने के लिए बीज बोये। काश सुरख रेका में उनकी 10 वीं वर्षगांठ पर लिखे लेख का अंग्रेजी में अनुवाद किया जा सकता और एक पुस्तिका में प्रकाशित किया जा सकता। विडंबना है कि सितंबर पत्रिका में 'सुरख रेखा' ने अपनी 40 वीं स्थापना वर्षगांठ मनाई है।  --Harsh Thakor
 


कामरेड जीता कौर के अधूरे काम पूरा करना ही होगी सच्ची श्रद्धांजलि

उसी तरह की और वीरांगनाएं भी ढूंढ़नी होंगीं 
लुधियाना: 23 जून 2020:(न्यूज़ मेकर//नक्सलबाड़ी स्क्रीन)::
ज़िंदगी यूं भी गुज़र सकती थी। बहुत ही पारम्परिक तरीके से। बालपन, लडकपन, इश्क विश्क, शादी ब्याह, बाल बच्चे और एक दिन शव यात्रा लेकिन जीता कौर को यह सब मंजूर नहीं था। उसके अंदर की आंख  वह सब भी देखने लगी जो आम लोगों को नजर न आता। बहुत से सवाल उसके मन में उठने लगे जो उसे चैन न लेने देते। इन सवालों का जवाब उसे न घर से मिलता, न ही स्कूल कालेज से और न ही समाज से। एक दिन उसके कालेज में एक सम्भ्रांत युवा महिला किसी बैठक विशेष का निमन्त्रण देने आई। उस बैठक और निमन्त्रण की जान पहचान उस युवा महिला ने बहु ही आकर्षक ढंग से कराई। वह युवा महिला पेशे से वकील थी। बहुत ही ध्यान से हर शब्द सुनती और बहुत ही सटीक जवाब देती। ऐसा जवाब जो हर धुंध और धुएं को तेज़ी से हटाता जा रहा था। जीता कौर को लगा कि इस बैठक में उसे अपने सवालों के जवाब ज़रूर मिलेंगे। इसी उम्मीद से बोली क्या मैं भी आ सकती हूं इस बैठक में? जवाब में मुस्कान भरी स्वीकृति मिली। यह बैठक थी जागृती महिला परिषद की और इस बैठक का निमन्त्रण लाने वाली युवा महिला थी सविता तिवाड़ी। यह संगठ सबंधित था लेकिन वास्तव में भाकपा(माले) लिबरेशन से जुड़ा हुआ था। न यूं तो इंडियन पीपुल्स फ्रंट 
इस बैठक में आए ही जीता कौर इसी संगठन से जुड़ गई। उसने अपने छोटे से जीवन के आरम्भिक दौर में ही देखा था कि किस तरह कांग्रेस से सबंधित कुछ नेताओं ने उसके पिता को सड़क हादसे में मरवाने की साज़िश रची। पिता रत्न सिंह बच तो गए लेकिन बहुत सी शरीरक समस्याएं पैदा हो गयीं। ज़िंदगी के इस दौर में जब बहुत से लोग मस्ती में मस्त रहे हैं तब जीता कौर देश की सियस और समाज के वास्तविक रंगों को न सिर्फ देख रही थी बल्कि अनुभव भी कर रही थी। उसके मन में उठते सवाल बढ़ते जा रहे थे। फिर प्रेम हुआ तो वह सपना भी साकार न हुआ। समाज ने इसकी स्वीकृति न दी। प्रेमी अपने परिवार से बात करने की हिम्मत तक न जुटा पाया। प्यार का यह सपना दिखा और बस दिखते ही टूट गया। इसके बाद जीता कौर ने किसी भी सा सांसारिक प्रेम का सपना न देखा। बस दिन रात एक ही धुन कि इस समाज को बदलना है। इस बदलाहट के लिए दिन रात काम करना है। निरंतर काम ही काम। उसे कैंसर हो गया लेकिन फिर भी आराम न किया। देहांत से कुछ ही दिन/सप्ताह पहले मानसा के कामरेड हरभगवान भीखी ने जीता कौर से एक औपचारिक मुलाकात की। मीडिआ के लिए कुछ सवाल पूछे। किसी को ऐसी आशंका तक न थी कि वह इतनी जल्दी हमसे बिछड़ जाएगी। हरभगवान भीखी की मुलाकात को आप पढ़ सकते हैं नक्सलबाड़ी (पंजाबी) में। अगर आपके पास उससे जुडी कोई याद हो तो वह भी हमें भेज सकते हैं। जिन लोगों ने समाज को बदलने के लिए अपना सारा जीवन दांव पर लगा दिया, हर सुख त्याग दिया उनकी ादों को संजोना और संभालना हम सभी का नैतिक कर्तव्य बनता है। हो सकता है आप जीता कौर के संगठन ा विचारों से सहमत न हों लेकिन ह तो आपको भी मानना ही लड़ेगा कि उसने अपनी ज़िंदगी समाज को बेहतर बनाने के मकसद को सामने रख कर लगाई। जीता कौर जैसी युवाओं को ढूंढ़ने में आज के पारम्परिक वाम दल बहुत कमज़ोर हैं। वे कुछ नहीं कर पा रहे। समाज में बदलाव चाहने वाले हर व्यक्ति को आगे आना होगा। खुद जागना होगा दूसरों को भी जगाना होगा। हमारे वक़्तों की वीरांगना कामरेड जीता कौर की चर्चा नक्सलबाड़ी स्क्रीन अंग्रेजी में भी है। आपके पास ऐसी कोई भी जानकारी हो तो हमें अवश्य भेजें। उन लोगों के विवरण संभालना हम सभी का कर्तव्य है जिन्होंने समाज को बदलने के लिए अपनी हर सांस तक लगा दी। कामरेड जीता कौर के संबंध में विवरण और तस्वीरें हमें भेजी कामरेड हरभगवान भीखी ने।  हम उनके आभारी हैं। --न्यूज़ मेकर  

Monday, April 27, 2020

नक्सली आन्दोलन पर हरभगवान की तीसरी पंजाबी पुस्तक

 पुस्तक चर्चा//गाथा इक सूरमे दी//सुखदर्शन नत  
मानसा//लुधियाना: 16 मई 2020: (पीपुल्ज़ मीडिया लिंक)::
पंजाब के नक्सलवादी आन्दोलन में से उभर कर सामने आये लोकप्रिय जनतक और राजनैतिक नेतायों की पहली पंक्ति में अआने वाले कामरेड बलदेव सिंह मान को शहीद हुए तकरीबन 34 वर्ष गुजर चुके हैं। इतनी लम्बी अवधि के बाद  उनके जीवन पर किसी पुस्तक का छपना स्वयं में ही इस बात का सबूत है कि न केवल वह क्रन्तिकारी आदर्श, जिनके लिए संघर्ष करते हुए कामरेड बलदेव मान ने अपनी जान कुर्बान की थी, आज भी समाज में उसी तरह प्रासंगिक हैं, बल्कि मान के साथी और वारिस अभी भी उसी शिद्दत, लगन और हिम्मत से उस संघर्ष को आगे बढ़ा रहे हैं। 
इस पुस्तक के सम्बन्ध में विशेष बात यह भी है कि पुस्तक का सम्पादक कामरेड हरभगवान भीखी, बलदेव मान का समकाली नहीं है, बल्कि मान की शहादत के समय उसकी उम्र केवल 11 वर्ष की थी। वह कोई अकादमिक खोजकर्ता या इतिहासकार भी नहीं है न ही उसका कामरेड मान के कार्यक्षेत्र अमृतसर के साथ या उनके राजनीतिक दल के साथ कोई भी संगठनात्मक सम्बन्ध रहा। हरभगवान तो पंजाब के दक्षिण की तरफ सहित मानसा ज़िले में जन्म और पला बढ़ा। वह  जीवन से सीपीआई (एम एल) लिबरेशन का पूर्णकालिक सक्रिय कार्यकर्ता है। उसकी कर्मभूमि भी अब तह मालवा क्षेत्र ही रहा। पुस्तक प्रकाशित करने जैसे जिस कार्य की अपेक्षा कामरेड मान के नज़दीकी साथियों या सियासी हमसफरों से की जाती थी वह कार्य हरभगवान ने समय, सम्पर्कों गंभीर वित्तीय संकटों के बावजूद कामरेड मान के कार्यक्षेत्र से ढाई सो किलोमीटर दूर रहने के बावजूद पूरा कर दिखाया। आप इसे पंजाबी में पढ़ सकते हैं -नक्सलबाड़ी-में बस यहां क्लिक करके 
इसे क्रन्तिकारी आंदोलन से बिछुड़ चुके नेताओं और शहीदों के प्रति उसकी जनून जैसी लगन ही कहा जा सकता है और इसी वजह से वह इस बेहद कठिन और बुरी तरह पिछड़ चुके महत्वपूर्ण कार्य को पूरा कर दिखने में सफल रहा। परिणाम स्वरूप शहीद मान की स्मृति में यह पुस्तक आपके हाथों में पहुंच सकी। इससे पहले वह इंकलाबी लहर की जानीपहचानी महिला नेता (स्वर्गीय) कामरेड जीता कौर और राज्य के प्रथम पंक्ति के नक्सली शहीद कामरेड अम्र सिंह अच्चरवाल से सबंधित दो पुस्तकों को भी जनता तक पहुंचा चुका है। कामरेड मान से सबंधित यह पुस्तक हरभगवान की तीसरी ऐसी खोज पूर्ण पुस्तक है जो नक्सली आंदोलन को समर्पित है।
 ूँ बलदेव मान से सबंधित पुस्तक सम्पादित करने का प्रयास कोई पहली कोशिश नहीं है। हरभगवान की तरफ से यह प्रोजेक्ट हाथ में लेने से  करीब दस वर्ष पूर्व पंजाबी के जानेपहचाने कहानीकार अजमेर सिद्धु ने भी  नक्सलवादी आंदोलन पर पुस्तक तैयार करने का प्रयास बहुत ही जोशो खरोश और उत्साह के साथ साथ क्रन्तिकारी भावना को लेकर ही शुरू किया था।  उन्होंने बहुत सी समग्री संकलित भी कर ली थी लेकिन लहर में मौजूद शक्की स्वभाव और संकीर्ण सोच के हंद लोगों के असहयोग और बेतुके किंतु परंतु वाले सिलसिले ने उसे इतना परेशान कर दिया की उसने जहां  से यह प्रोजेक्ट शुरू किया था उसे वहीँ पर समाप्त कर दिया। इस सब के बावजूद इसे अजमेर सिद्धु की खुलदिली ही कहना चाहिए कि जब हरभगवान ने इस प्रोजेक्ट को हाथ में ले कर अजमेर सिद्धु से सम्पर्क किया तो उन्होंने सारी की सारी सामग्री हरभगवान के हवाले कर दी। इसके साथ ही हर सम्भव सहयोग का भी वायदा किया। इस तरह मैं गवाह हूं कि कामरेड मान के परिवार, रिश्तेदारों, नज़दीकी दोस्तों-मित्रों-संग्रामी साथियों और डाक्टर अवतार सिंह ओठी ने भी इस पुस्तक के लिए बहुत सहयोग दिया। उनके पास कामरेड की यादों की जो भी भी पूंजी जिस जिस रूप में भी थी उसे हरभगवान के हवाले कर दिया। इनमें शहीद मान की रचनाएं भी थीं।
इस पर भी इस किताब की समुचित सामग्री कोका अधीन करते हुए मुझे अहसास हुआ कि पंजाब के नक्सली धड़ों के ज़्यादातर नेता लहर के इतिहास,  इसमें समय समय पर उठने वाली बहसों के संबंध में खुल कर बात करने, अपनी यादों के कड़वे मीठे अनुभवों पर लिखने या मांग करने पर भी ऐसा रचनात्मक सहयोग देने के मामले में बहुत ही कंजूस या "शरमाकल" स्वभाव के हैं। वे नई समाजिक सियासी हालतों के नज़रिये से भी अतीत को फिर से देखने, जांचने और परखने की बात पर कोई उत्साह नहीं दिखाते। 
यह सब किसी जीवित और आगे बढ़ने के इच्छा रखने वाली इंक़लाबी लहर के लिए कोई शुभ लक्षण नहीं हैं। 
नेताओं की तरफ से नया लिखने या घटनाओं और घटनक्रमों का नए सिरे से विश्लेषण करने के मामले में उदासीन होने का ही परिणाम है कि इस पुस्तक के लिए सामग्री संग्रहित करने के लिए सम्पादक को उन्हीं रचनाओं का सहारा लेना पड़ा जो कामरेड मान की शहादत के बाद विभिन्न क्रन्तिकारी पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। मांग करने के बावजूद एक दो को छोड़ कर किसी ने (जिनमें मैं खुद ही शामिल हूँ) भी पुस्तक  अपना ताज़ा लेख/संस्मरण नहीं लिखा।  
इसी लिए पुस्तक को पढ़ते हुए पाठक महसूस करेंगे कि इस पुस्तक में कामरेड मान के हंसी मज़ाक वाले स्वभाव, इंकलाबी लगन, निडरता, बेपरवाही, लोकप्रियता और सफलता पूर्वक लड़े गए जन आंदोलनों का ज़िक्र और ऐसे कई तरह के लिश्कारे तो कई जगहों पर नज़र आते हैं लेकिन उस दौर और उसके बाद समाजिक व सियासी हालात में आई तब्दीलियों का विवरण और इन तव्दीलियों के पीछे कार्यशील शक्तियों व कारणों का कहीं भी सटीक विश्लेषण कहीं नज़र ही नहीं आता। 
नई पीढ़ी के सूझवान पाठकों के मनों में जिज्ञासा होगी की आनंदपुर साहिब का प्रस्ताव क्या था? कैसे पंजाब के साथ धक्के की बात करने वाला, राज्यों को अधिक अधिकारों और फैडरल ढांचे को कायम करने जैसी लोकतान्त्रिक मांगों पर बहुत बड़ा सियासी आंदोलन खड़ा करने वाला, पंजाब के दरियाई पानियों के अनुचित बटवारे के खिलाफ बोलने और मार्कसी पार्टी के साथ मिल कर एस वाई एल नहर की खुदाई के खिलाफ कपूरी गांव में मोर्चा लगाने वाला अकाली दाल अचानक "धर्म युद्ध" की तरफ कैसे फिसल गया? आपरेशन नीला तारा जैसे कहर भरे और अमानवीय कुकृत्य और इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद नवंबर-1984 में देश भर में दिल्ली सहित अन्य स्थानों पर राजीव गांधी हकूमत की तरफ से करवाए गए सिखों के भयानक हत्याकांड से महज़ 8 महीने बाद ही अकाली दल का  प्रधान संत हरचंद सिंह लोंगोवाल 24 जुलाई 1985 को उसी राजीव गाँधी के साथ बैठने और "राजीव लोंगोवाल समझौते" के नाम से जाने जाते पूरी तरह निक्क्मे और पंजाब विरोधी समझौते पर हस्ताक्षर करने को क्यों और कैसे मान गया? इतिहास में एक जुझारू पार्टी के तौर पर उभरा अकाली दल धीरे धीरे मोदी की साम्प्रदायिक और तानाशाह केंद्रीय सत्ता का बहुत ही वफादार सहयोगी कैसे बन गया? खालिस्तानी उभार के ज़बरदस्त उभार और शर्मनाक पतन के क्या कारण थे?पंजाब समस्या पर वाम के अलग अलग धड़ों/दलों की समझ और पहुंच क्या थी?इत्यादि बहुत से सवाल हैं जिन पर यह पुस्तक चर्चा  करती नज़र नहीं आती। 
ऐसी किसी भी पुस्तक के लेखक या सम्पादक के रास्ते में आने वाली एक निश्चित समस्या यह है कि क्रन्तिकारी लहर और इसके अलग अलग सियासी या जन संगठनों से सबंधित पांडुलिपियां, रचनाएँ, प्रकाशित सामग्री, दस्तावेज़ों ा यहाँ तक कि उनकी पत्र पत्रिकाएं की फाईलों की सही संभाल और बाकायदा रेकार्ड रखने के मामले में हालत कोई ज़्यादा अच्छी नहीं है। यही कारण है कि ज़रूरत की छपी हुई सामग्री या तो ढूंढे भी नहीं मिलती और या फिर  "गुप्त रेकार्ड" के नाम पर इंकार कर दिया जाता है। ऐसी हालत में लेखक के पास बस यही उम्मीद बची है कि जिस शहीद पर पुस्तक लिखनी है उसका कोई साथी मिल जाये को व्यक्तिगत रुचि के चलते कोई रेकार्ड या समाग्री संभाल कर बैठा हो। साथ ही यह भी आवश्यक है कि वह खज़ाना लेखक/सम्पादक के साथ सांझा भी करने को तैयार हो। आप समझ सकते है ऐसा सब कुछ कोई लाटरी लगने जैसा ही होता है जिसकी कोई भी गारंटी नहीं होती। 
इन सभी समस्यायों को आपके साथ बांटने का मकसद यही है कि यदि इन सभी दिक्क्तों के बावजूद कामरेड मान की शहादत के साढ़े तीन दश्कों के बाद भी हरभगवान इस पुटक की सामग्री एकत्र करके उसे छपवा लेता है तो यह किसी बहुत बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है। विशेष तौर पर ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार पर कामरेड मान का लेख एक ऐसी वशिष्ठ रचना है जो साबित करती है कि इस हमले पर कामरेड मान और इंकलाबीयों की सोच और पहुंच सीपीआई/सीपीएम मार्का वाम दलों से पूरी तरह अलग थी, जो खालिस्तानी आतंकवाद के विरोध और "देश की एकता अखंडता की रक्षा" की आड़ में इन समस्यायों को पैदा करने वाली केंद्रीय सत्ता के पीछे जा कर खड़ी हो गईं थीं।  
मैं समझता हूं कि यह प्रेरणामय पुस्तक केवल कामरेड बलदेव सिंह मान को बनती हुई उचित श्रद्धांजलि ही नहीं बल्कि अलग अलग इंकलाबी नेताओं और शहीदों पर लिखी जाने वाली ऐसी पुस्तकों में अनजाने ही ऐसे बहुत घटनाक्रम, तारीखें, नाम-जगह, और व्यक्तियों के हवाले सुरक्षित हो जाते हैं  जिन्होंने आने वाली पीढ़ियों के इतिहासकारों के लिए बहुत ही लाभप्रद्ध और सटीक हवाला स्रोत बनना होता है। मैं आशा करता हूँ की साथी हरभगवान भविष्य में लेखन के क्षेत्र में और भी अधिक गंभीरता और मेहनत के साथ कार्य करेगा।
                                                                         (पंजाबी से अनुवाद-हिंदी स्क्रीन डेस्क
मानसा: 27 अक्टूबर 2019 
सुखदर्शन नत्त 
(केंद्रीय कमेटी सदस्य)
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